From - NARENDRA SINGH "BABAL"
★★नाटक वाला★★
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यह मर जाना मेरा
मेरा मर जाना
मेरा मर जाना ही
उत्सव है, आनन्द है ,
गड़गड़ाहट है तालियों की
इसलिए मरा हूँ कई बार ,
"मुक्ति '
"नरेन अकेला'
"पेंशन '
"औरंगज़ेब की आखिरी रात'
आदि-आदि नाटकों में
तड़पता, कराहता, वेदना, पश्चाताप
और बिखरे रिश्तों के दर्द को लेकर
बस, मरा हूँ
और मेरा मर जाना ही
उत्सव, आनन्द,
और तालियों की गड़गड़ाहट बना है |
इक बार तो
अर्थी से उठकर पूछा मैंने
कि मर जाने पर किसी के
यूँ तालियाँ बजाते हैं क्या ?
तिस पर और ज़ोरदार गूँजा प्रेक्षागृह
जैसे सब एक सुर
करतल ध्वनि में कह रहे हों
"हाँ "
मर जाना मेरा
मेरा मर जाना ही
रास आया उन्हें |
यूँ मेरा मर जाना
रोचक नहीं, रोमांचक नहीं
ना ही उत्तेजक
और सनसनीखेज तो कतई नहीं
मेरा मर जाना है
गूँगे समाज का निर्माण,
इसलिए मेरा मर जाना
रास उनको आता है,
ज़िन्दा रहने से मेरे
उनका तख़्ता पलट सकता है,
इसी लिए रचते हैं वह
मेरे मर जाने को,
बार-बार मेरे मर जाने को
नित् नई कहानियाँ,
और हर कहानी के अन्त में
गढ़ते हैं वह
सिर्फ़ और सिर्फ़
मेरा मर जाना ही |
घबराते हैं वह
मेरी स्क्रिप्टों से
मेरी रिहर्सलों से
मेरे आ जाने से
लॉन में बैठ जाने से
कि कहीं मैं 'नाटक' न कर दूं
इसलिए श्वेत काग़ज़ पर
बड़े-बड़े हरूफों में
काली स्याही से
लिख देते हैं वह
"बन्द"
"छुट्टी "
" लॉकडाउन "
और भी ना जाने क्या-क्या
और नीचे
बिलकुल दस्तख़त के पास
गुर्राती मोहर ठोक देते हैं
यह प्रमाण देने को
कि वह हाकिम हैं
युगों-युगों से ,
और उनके ही निज़ाम से
साँसें चलती हैं
दिल धड़कते हैं
बच्चे जन्मते हैं
और मौत भी उन्हीं की मर्ज़ी से आती है |
मगर वह जानते हैं
बहुत अच्छी तरह से जानते हैं
इसका (मेरा) मरना भ्रम है
और एक आवाज़
भयावह आवाज़
जो उनके सिंहासन के नीचे से आती है
इसका मरना मुश्किल है
असम्भव है मरना इसका
ये घास है
जो मर कर भी फिर उग आती है
बिन खाद-पानी और रोशनी के
फिर हरी-भरी हो जाती है |
कितना भी कुचल दो
दबा दो
चट्टानों -पहाड़ों के नीचे
यह बरगद है
उगता ही रहेगा
अपनी असंख्य जड़ों से
यह ज़िन्दा रहेगा " नाटक " में
और नाटक तो सृष्टि है ,
नाटक तो दृष्टि है ,
नाटक तो समष्टि(सामूहिक) है
और यह नाटक की व्यष्टि (इकाई ) है
यही तो है कलाकार
यही तो है फ़नकार
जिसने ज़िन्दा रह कर भी मनोरंजन किया
जिसने मर कर भी लोकानुरंजन किया
यही तो है नटराज का अंश
यही तो है आदि और अंत
यही तो है चिता की भस्म
यही तो है सृजन की रस्म
यह यूँ वश में नहीं आएगा
बस ,इसे तो नाटक ही धुरी पर लाएगा |
अशेष ( समूचा ) जीवन नाटक है इसका
शेष नहीं नाटक के कुछ और इसका
यह बरखा,बादल ,पत्तों -सा है
यह झरना,मरू और पहाड़ों-सा है
यह सन्त सरीके रमा हुआ
यह पंत तरीके चला हुआ
धर्म-ज़ाति है इसका नाटक
घर -मंदिर है इसका नाटक
यह नाटक वाला ,यह नाटक वाला
कुछ और नहीं समझने वाला |
फिर भी हे मठाधीशों
हे सिंहासन पर आरूढ़ होने वालों
यह आवाज़ तुम्हें सुनाई नहीं देती
तो सुनो अंतिम वाक्य
नुक्कड़- नुक्कड़ ,गली-गली
हर नगर-नगर ,गाँव-ढांणी
नाटक होगा केवल नाटक
फिर मर जाना मेरा
हाँ, मेरा मर जाना
मेरा मर जाना ही
एक नाटक होगा
यह मेरा मर जाना भी
एक परिवर्तन का नाटक होगा |