कश्मीरी पंडितों का दर्द - एक पूरी पीढ़ी ने शरणार्थी शिविरों में रहते हुए अपनी जिंदगी गुजार दी

     किसी पौधे को एक जगह से दूसरी जगह लगाना आसान होता है, लेकिन किसी पेड़ को आप विस्थापित नहीं कर सकते. अगर आप ऐसा करते हैं तो पेड़ सूख जाता है क्योंकि विस्थापन के दौरान, उसकी जड़ें कट चुकी होती हैं. 30 साल पहले कश्मीर में कश्मीरी पंडितों का नरसंहार ही नहीं हुआ, बल्कि उनकी जड़ें भी काट दी गईं. कश्मीरी पंडित अपनी जड़ों की ओर तभी लौटेंगे, जब उन्हें सुरक्षा का भरोसा मिलेगा. लोकतंत्र में कई बार ये माना जाता है कि विरोध का बैनर सजाने के लिए जनता को परेशान करना ज़रूरी होता है.  (File Photo)



     कश्मीरी पंडितों ने अपने विस्थापन के 30 साल बाद भी संयम नहीं खोया. ये अफसोस की बात है कि सब्र को हमारे समाज में कमज़ोरी समझ लिया जाता है, इसीलिए हम ये अपनी ज़िम्मेदारी मानते हैं कि कश्मीरी पंडितों की आवाज़ बनकर, न्याय की लड़ाई लड़ी जाए. कश्मीरी पंडितों की एक पूरी पीढ़ी ने शरणार्थी शिविरों में रहते हुए अपनी ज़िंदगी गुजार दी. लेकिन विडंबना देखिए- भारत में, अपने ही देश के नागरिकों को नागरिकता का संपूर्ण अधिकार दिलाने के लिए कोई आंदोलन नहीं होता. कश्मीरी पंडितों के मामले में यही हुआ. कई लोग खामोश खड़े रहे और कइयों ने एक दूसरे पर आरोप लगाकर खुद को आरोपों से मुक्त मान लिया.


   जो लोग दिल्ली से लेकर मुंबई और कोलकाता तक फ्री कश्मीर (FREE KASHMIR) के पोस्टर लहराते हैं, अगर वो सही मायने में कश्मीरियत को लेकर चिंतित होते तो कश्मीरी पंडितों के लिए घर वापसी की आजादी जरूर मांगते. वो घाटी के लिए कट्टरपंथ से आज़ादी की मांग जरूर करते क्योंकि पंडितों के अंदर वापस लौटने की इच्छा भी तभी होगी, जब उन्हें एक साथ, वापस उसी ज़मीन पर, भयमुक्त माहौल में बसाए जाने का भरोसा मिलेगा.


   ये इसलिए जरूरी है क्योंकि 90 के दशक में एक हज़ार से ज्यादा कश्मीरी पंडितों की हत्या तो हुई ही, लेकिन जो बच गए, उनकी भी आत्मा कुचल दी गई. इंसान का जख्मी शरीर तो फिर भी संभल जाता है, लेकिन आत्मा को संबल तभी मिलता है, जब समाज की सामूहिक चेतना सक्रिय होती है.