निजीकरण.. अभिशाप या वरदान 

लेखक - अम्बुज सक्सेना (नोएडा) 


       1947 का समय था, देश आजाद हुआ था। नई  नवेली सरकार बनी थी. देश में उस समय चुनौतियाँ ही चुनौतियाँ थी जैसे रियासतों को एक करना, लोगों को खान पान की व्यवस्था करना आदि धीरे धीरे  देश की सारी संपत्ति सिमट कर गणतांत्रिक पद्धति वाले संप्रभुता प्राप्त भारत के पास आ गई। समय आगे बढ़ा और गणतांत्रिक भारत की व्यवस्था कायम रही और लोकतंत्र स्थिर रहा। धीरे-धीरे रेल, बैंक, कारखानों आदि का राष्ट्रीयकरण किया गया। 


     मात्र 70 साल बाद समय और विचारों ने करवट ली है। फासीवादी ताकत पूंजीवादी व्यवस्था की कंधे पर सवार हो राजनीतिक परिवर्तन पर उतारू है। लाभ और मुनाफे की सोच पर आधारित ये निजीकरण की ताकत देश को फिर से 1947 के पीछे ले जाना चाहती है मतलब फिर से रियासती करण. निजीकरण से लोकतंत्र का वजूद खत्म हों जायगा। देश पूंजीपतियों के  आगे गुलाम होगा जो परिवर्तित रियासतों की शक्ल में सामने उभर कर आयेंगे। वो भी बहुत सख्त, शायद राजा - रजवाड़ों से भी ज्यादा सख्त। ये मुफ्त के हॉस्पिटल, धर्मशाला या पीने के लिए पानी और छायादार जगह नहीं बनवायगे।  ये हर कदम पर पैसा उगाही करने वाले  होंगे।



     निजीकरण के पक्ष के लोगों का तर्क है कि सरकारी आदमी काम नहीं करता है, सुविधाए नहीं है आदि निजीकरण से काम मे तेजी आएगी। सरकारी आदमी रिश्वत लेता है निजीकरण मे रिश्वत बंद हो जायगी, भ्रष्टाचार बंद हो जायगा।जरा ये लोग बताए कि निजीकरण मे क्या भ्रष्टाचार नहीं है अभी बैंकों में भ्रष्टाचार हुए हैं जैसे येस बैंक, आईसीआईसीआई बैंक ये क्या सरकारी बैंक है? सरकार की तरफ से अगर कोई पेनल्टी लगती है तब वो नाम मात्र की होती है, जैसे एक उदाहरण देता हू कि अगर बैंक मे चेक बाउन्स हो जाता है तब सरकारी बैंक 170 रुपये लेती है और निजी बैंक 500 से 1000 रुपये तक लेती है और एक बात जो रिश्वत लेता है और जो देता है दोनों ही भ्रष्टाचार की श्रेणी में आते हैं तब फिर जो रिश्वत देता है वो अपने आप को भ्रष्टाचारी क्यो नही कहता है? 


      जो सरकारी उपक्रम किसी जमाने मैं देश की शान हुआ करते थे, वही इस नए दौर में बोझ और बेकार लगने लगे. सरकार ने भी उनको निजी हाथों में बेचने की कवायद शुरू कर दी. आप लोग खुद देखिए कि ये सरकारी उपक्रम ही गावं - देहातों मे है न कि निजी उपक्रम। चाहे वो बैंक हो, डाकघर हो या राशन की दुकाने। बैंकों को निजी हाथों में बेचने से  सरकार अपने  कार्यक्रम कैसे लागू करवाएगी, क्योंकि कोई विदेशी बैंक और न ही कोई निजी बैंक सरकारी योजनाओं को लागू करने के लिए तैयार होगा. रेलवे के निजीकरण से सबसे बड़ा नुकसान यह है कि इससे बड़ी संख्या में सरकारी नौकरियां ख़त्म होंगीं क्योंकि निजी कंपनियां कम लोगों से ज्यादा काम करवाकर लाभ अधिकतम कमाएगी। प्राइवेट ट्रेनों को क्लियर सिग्नल दिया जाये जिससे वो ट्रेनें समय पर पहुंचेंगी और सरकारी ट्रेनें स्टेशन के बाहर खड़ी होकर सिग्नल का इंतजार ही करेगी। रेलवे के किरायों में बढ़ोत्तरी तो होगी, जिसे गरीब और मध्यम वर्ग बर्दाश्त नहीं कर पायेगा. रेलवे का निजीकरण ठीक वैसा ही परिणाम लायेगा जैसा कि सरकारी और निजी स्कूलों के बीच है. सरकारी स्कूलों में पढाई होती नहीं है और निजी स्कूलों की फीस इतना ज्यादा है कि हर कोई दे नहीं पाता है. शिक्षा के निजीकरण होने से अत्यधिक शुल्क लिया जाता है जो एक सामान्य व्यक्ति इसका भार नहीं उठा सकता है। समर्थ और असमर्थ लोगों के बीच एक खाई उत्पन्न हो जायगी। उच्च वर्गो के स्वार्थ के लिए अमीरों और गरीबों के बीच विष घोलने  का काम किया है ।
 


      कुछ संस्थान विभिन्न मदों पर छात्रों से लाखों रुपए लेकर भी उन्हें बुनियादी सुविधाएँ नहीं दे पाते है। यह शिक्षा के निजीकरण के मूल उद्देश्य को भटका देता है। अधिकांश निजी संस्थानों में मुख्यत: सरकारी निधि या सहायता प्राप्त संस्थानों में अनुदान से प्राप्त आर्थिक लाभ को अक्सर दूसरे नाम पर खर्च करके स्थिति को बदतर बना दिया जाता है। इस तरह के विद्यालयों के शिक्षकों को शायद ही कभी पूरा वेतन दिया जाता है जबकि उन्हें सरकारी वर्ग के समान पूर्ण रकम की प्राप्ति की रसीद देनी होती है. निजी स्कूलों के शिक्षकों को अनुबंध के आधार पर रुपए दिए जाते हैं। अगर निजीकरण सही है फिर हम सभी क्यो शिकायत करते हैं और रोते रहते हैं कि प्राइवेट अस्पतालों में, प्राइवेट स्कूल में फीस के नाम पर, इलाज़ के नाम पर लूटा जा रहा है? निजीकरण वाले लोग वेतन नहीं दे रहे हैं वेतन काट रहे हैं. पूरी मजदूरी नहीं मिलती है आदि का रोना फिर क्यों रोते हो? क्या जनता स्कूल या अस्पताल के लूट तंत्र से खुश हैं? 


     निजीकरण से एक व्यक्ति से 10 व्यक्तियों के बराबर काम लिया जायगा। कोल्हू के बैल की तरह पीसा जायगा। मैं कहता हूँ सीधे सब कुछ प्राइवेट कर दो.  उद्योगपति खून चूसे... देश आजाद कराने की जरुरत क्या थी, पहले भी निजी लोग ही खून चूसते थे. सरकार आम जनता के प्रति जबाबदेही,जिम्मेदारी से बचना चाहती है। जिसका परिणाम ये होगा कि लोग निजी क्षेत्र द्वारा शोषित किय जायगें। फलस्वरुप अवसाद ग्रस्त जीवन हो जायगा या आत्म हत्या करेगा। कहीं निजीकरण का अंधा समर्थन हम लोगो को बर्बाद न कर दे. कहीं हम को सफेद कपड़ा न पहना दे. 


     अगर निजीकरण अच्छा है तो फिर सबसे पहले सरकार का निजीकरण होना चाहिए। संसद भी निजी हाथो मे दे दो. पहले खुद को निजीकरण करके जनता के सामने एक उदाहरण पेश करें। हमने बेहतर व्यवस्था बनाने के लिए सरकार बनाई है न कि सरकारी संपत्ति  को बेचने के लिए। निजीकरण का विरोध करें, सरकार को अहसास कराएं कि अपनी जिम्मेदारियों से भागे नहीं। सरकारी संपत्तियों को बेचे नहीं। अगर कहीं घाटा है तो प्रबंधन को ठीक से करें। 


                                              "चिंता न करें, आज हमारी तो कल सबकी बारी है."