पूर्व केंद्रीय मंत्री जसवंत सिंह का निधन

     पूर्व केंद्रीय मंत्री जसवंत सिंह का निधन हो गया. जसवंत सिंह का ताल्लुक राजस्थान के बाड़मेर से था. वो यहां के बड़े राजपूत नेता रहे हैं. एक दौर था जब भारतीय जनता पार्टी में जसवंत सिंह की तूती बोलती थी, लेकिन एक वक्त ऐसा भी आया जब पार्टी ने उन्हें टिकट तक देना मुनासिब नहीं समझा और वो बागी हो गए. ये हाल उस नेता का हुआ जो अटल बिहारी वाजपेयी के सबसे करीबियों में थे. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में जब एनडीए को सत्ता मिली तो जसवंत सिंह को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया. वाजपेयी कैबिनेट में जसवंत सिंह के पास विदेश मंत्रालय से लेकर रक्षा मंत्रालय और वित्त मंत्रालय तक कई महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां रहीं. जसवंत सिंह की राजनीति में एंट्री की वजह सिंधिया परिवार रहा है. वही सिंधिया परिवार जिससे बाद में जसवंत सिंह का छत्तीस का आंकड़ा हो गया.



     3 जनवरी 1938 को बाड़मेर के जसोल गांव में जन्मे जसवंत सिंह जीवन के शुरुआती दिनों में जोधपुर राजपरिवार के पास नौकरी करते थे. बाद में जसवंत सिंह सेना में चले गए. जसवंत सिंह की पत्नी शीतल कंवर उर्फ कालू बाई और सिंधिया परिवार के अभिभावकों की तरह रहे ग्वालियर की राजमाता के निजी सचिव सरदार आंग्रे की पत्नी की बहन थी. शीतल कंवर के ताऊ की बेटी से सरदार आंग्रे की शादी हुई थी. सिंधिया और जसोल परिवार के बीच पारिवारिक रिश्ता रहा है. इसी वजह से आर्मी बैकग्राउंड के जसवंत सिंह को सरदार आंग्रे परिवार के अनुरोध पर विजयाराजे सिंधिया राजनीति में लेकर आईं.


     राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने न केवल उन्हें बीजेपी ज्वाइन कराई बल्कि रहने के लिए दिल्ली के तीन मूर्ति लेन में जगह भी दी थी. सिंधिया परिवार की सरपरस्ती में जसवंत सिंह का कद बीजेपी में बड़ा होता गया और वो अटल बिहारी वाजपेयी के भी बेहद करीबी हो गए. जसवंत सिंह सबसे लंबे समय तक सांसद रहने का अनुभव रखने वालों नेताओं में शुमार रहे हैं. वो पांच बार राज्यसभा सांसद रहे और 1990, 1991, 1996 और 2009 में उन्होंने लोकसभा चुनाव जीता. हालांकि, इसके बाद तस्वीर पूरी तरह बदल गई.


2014 में दिखी असली बगावत - बंटवारे पर लिखी गई जसवंत सिंह की किताब जिन्ना को लेकर काफी विवाद भी हुआ. उन्होंने बंटवारे के लिए नेहरु के साथ साथ सरदार पटेल का भी नाम लिया. विवाद इतना बढ़ गया कि 2009 में जसवंत सिंह को पार्टी से बाहर कर दिया गया. हालांकि, बाद में 2010 में तत्कालीन नितिन गडकरी की पहल पर उन्होंने फिर से पार्टी ज्वाइन कर ली. लेकिन वो अपने विचार लगातार रखते रहे. इसके बाद 2014 में लोकसभा टिकट को लेकर उनकी पार्टी से ठन गई. 


     2014 में एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने इंडिया टुडे को बताया था कि वाजपेयी और आडवाणी के बाद पार्टी के अंदर चर्चा, असहमति और अलग नजरिये की जगह नहीं बची है. जब वाजपेयी पीएम थे तब कैबिनेट भी बहुत लोकतांत्रिक हुआ करती थी. अब हर चर्चा इस बात पर खत्म कर दी जाती है कि यह पार्टी के लिए सही नहीं है. जसवंत सिंह को बाड़मेर लोकसभा सीट से टिकट नहीं दिया गया. इससे वो नाराज हो गए. नाराजगी इतनी बढ़ गई कि उन्होंने बागी रुख अख्तियार कर लिया. निर्दलीय चुनाव में उतर गए. हालांकि, मोदी लहर में कांग्रेस के साथ-साथ वो भी कहीं गुम हो गए और उम्र के उस मुकाम पर बीजेपी के उम्मीदवार से ही हार झेलनी पड़ी. 


     लेकिन इसका असर ये हुआ कि जसवंत सिंह के बेटे मानवेंद्र सिंह ने भी तेवर दिखा दिए. 2018 में जब राजस्थान विधानसभा चुनाव हुए मानवेंद्र सिंह ने अलग राह पकड़ ली. तत्कालीन वसुंधरा राजे सरकार से राजपूतों की नाराजगी को और मजबूती मिली, नतीजा ये हुआ कि राजस्थान में सत्ता परिवर्तन हो गया. इस तरह पूरी उम्र बीजेपी के साथ एक संस्थापक सदस्य के तौर पर रहने वाले जसवंत सिंह को जीवन के अंतिम दिनों में स्वतंत्र रूप से ही वक्त बिताना पड़ा और इस तरह वो 27 सितंबर को 82 वर्ष की उम्र में दुनिया को अलविदा कह गए.