From - डॉ विनोद कुमार खरे

     साथियो इस सरकते हुये संसार को दुनियां भी कहते हैं । यहां रात-दिन, दुख-सुख आदि द्वंद भरे पड़े हैं। 

    गीताजी के सोलहवे अध्याय में भगवानश्रीकृष्ण ने इन द्वन्दों को दोभागो में बिभाजित किया  है।


1 दैवी या सही पंथीय

2 असुरीय अथवा वाम पंथीय कहते हैं।

   असुर पंथीय विचारो का चिरकाल से बोलबाला रहा है। असुर  कुल मे भी राजा बलि और प्रह्लाद जैसे देव पुरुषों का अवतरण हुआ। जिनके गुण देवता भी गया करते हैं। इसीलिए गीता तथा वेदवाक्यों में है कि -

"जिसके जैसे भाव

 होते हैं वह पुरूष वैसा ही हित है। जन्म से न कोई सुर होता और न असुर। उदाहरण केलिये

ब्राह्मण कुल में पैदा हो कर भी रावण असुर बन गया था. सतयुग में यक ही रावण था. अब तो घर-घर मे रावण

राज्य है। 

       अब हमें नकारात्मकता के बंधन से पूर्णतया मुक्तहोकर, स्वाधीन स्वराज स्थापित करना है। इस हेतु

राष्ट्रधर्म का प्रचार करना जरूरी है। रास्ट्रधर्म ही राष्ट्र भक्ति का आधार है। जहाँ सर्वाधिक, सर्वधर्म की समानता होती है वही राष्ट्र भक्ति का जागरण होता है। तभी हम कह सकते हैं कि -

"मजहब नही सिखाता आपस मे बैर करना" 

     इसके बिना सब दिखावा है छल है. झूठा भाई चारे का सेकुलरिज्म है। आइये हम सब राष्ट्र बिरोधियो से सावधान होकर जग जावे और अपने देश को घोर स्वार्थमयी अज्ञाननिद्रा से उठावें । हम स्वतः अपनी शक्ति का जागरण कर फिर भगवान से प्रार्थना करें ।

"असतो मा सद्गमय"

"तमसो मा ज्योतिर्गमया"

"मृत्योर्मा अमृतंगमया"

   ॐ शांति शांति शांति!