भारतीय मीडिया की मर्यादाओं की लक्ष्मण रेखा कहाँ तक

 लेखक वरिष्ठ पत्रकार - रवि आनंद    


     आजकल हम सब देख रहे हें कि कैसे कई न्यूज चैनल खबरों के नाम पर नैतिकता की सारी सीमाएं लांघ रहे हैं। पहले मीडिया की एक मर्यादा होती थी, जो अब दिखाई नहीं पड़ती। खबरों को मसालेदार बनाने के लिए और बिकाऊ बनाने के लिए न्यूज चैनलों ने मीडिया की मर्यादाओं की धज्जियां उड़ा दीं हैं। इन दिनों कई न्यूज चैनलों पर होने वाली बहसों में खुलेआम गालियां दी जाती हैं। अपशब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से किया जा रहा है। आपने भी कई चैनलों पर अपशब्द सुने होंगे। एक सभ्य समाज में, एक जिम्मेदार परिवार में अपशब्दों की कोई जगह नहीं होती। मुझे लगता है कि हमारे देश के न्यूज चैनल अब ऐसे नहीं रह गए हैं जिसे पूरे परिवार के साथ हम सब देख सकें। क्योंकि डर लगा रहता है कि कब न्यूज चैनल पर खबरों के नाम पर अश्लीलता देखने को मिले। अपशब्द सुनाई देने लगे।



     प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कल इशारों-इशारों में मीडिया को उसकी मर्यादा की याद दिलाई। प्रधानमंत्री ने कहा कि सोशल मीडिया के युग में अब मीडिया की भी आलोचना होने लगी है। इन आलोचनाओं से मीडिया को सीखना चाहिए। प्रधानमंत्री का यह बयान बहुत महत्वपूर्ण है. क्योंकि पूरे देश में इन दिनों मीडिया को लेकर एक तरह का नकारात्मक माहौल बना हुआ है. TRP के नाम पर पिछले कुछ दिनों में भारतीय मीडिया ने बार-बार मर्यादाओं की लक्ष्मण रेखा को पार किया है।


     अलग-अलग न्यूज़ चैनल अलग-अलग तरीके से इस मामले को कवर कर रहे हैं और मीडिया ट्रायल चल रहा है। ऐसा लगता है अब अदालत की कोई जरूरत नहीं, इंवेस्टिगेटिव एजेंसियों की कोई जरूरत बची ही नहीं। बड़े-बड़े चैनलों के न्यूजरूम और टीवी स्टूडियो में सारी की सारी जांच इस वक्त चल रही है। कभी चीन के मुद्दे पर, तो कभी सुशांत सिंह राजपूत को लेकर भारतीय मीडिया के एक वर्ग ने बेहद गैर-जिम्मेदार रिपोर्टिंग की। मीडिया की इस भूमिका को लेकर जनता के बीच में भी एक बहस छिड़ी हुई है। जिस तरह की भाषा की प्रयोग किया जा रहा है, वो बहुत नीचे गिर गई है और अब देश के परिवार न्यूज़ चैनलों को लेकर ये कहने लगे हैं कि छोटे बच्चों के सामने न्यूज चैनल नहीं देखना चाहिए। अब हमारे देश के न्यूज़ चैनल भी एकता कपूर के सीरियल की तरह हो गए हैं जिन्हे परिवार के साथ देखने में बड़ों को शर्म आती हे. 


     रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है- धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी, आपद काल परखिए चारी। यानी बुरे समय में व्यक्ति के धीरज यानी धैर्य, धर्म अर्थार्त संस्कारों, मित्र और नारी यानी उसकी पार्टनर की परीक्षा होती है। क्योंकि आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जिस प्रकार से काम कर रही है उसके हिसाब से तो नहीं लगता कि मीडिया जनता के लिए काम कर रही है। गिने चुने लोगों को प्रतिदिन स्टोडियो में बिठाकर जनता की राय बता देना क्या पत्रकारिता इसी को कहते हैं ? सरकारी दफ्तरों के सामने जा कर या फिर कुछ टेलीविजन सितारों के साथ बहस करना तो अखबार के पेज 3 की तरह ही हो गई है, जो खबर के लिए नहीं मनोरंजन के लिए पढ़ी जाती है।


     अखबारों ने सौ साल से अधिक समय में कई उतारचढ़ाव देखें पर अपनी मर्यादा को समाज में बनाए रखने में कामयाब रहा हे. वहीं दुख के साथ कहना पड़ता है कि डिजिटल मीडिया के दौर में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मानो बदहवास हो रहा है। ख़र्च को कम करने के नाम पर कोरोना काल में पत्रकारिता के उच्च आदर्श का सपना दिखा कर कई युवा पत्रकारों की जीवनलीला समाप्त करने वाली मीडिया हाउस को अपने अंदर भी झांक लेना चाहिए। पत्रकार को पत्रकारिता करने से रोकने वाली संस्थाओं को पत्रकारों से अधिक पत्रकारों के संपर्क से प्राप्त व्यवसाय पर ध्यान रहता है।