अहिंसा परमो धर्मः मानने वाले आज धर्म हिंसा तथैव च भूल गये हैं - अजीत सिन्हा

      राँची (झारखण्ड) : धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, मीडिया एवं राजनीतिक जगत से सरोकार रखने वाले और कई संगठनों के पद धारी अजीत सिन्हा ने सनातनियों को इतिहास से सीख लेने की जरूरत पर ध्यान देने को कहा है। उन्होंने कहा कि इतिहास हमेशा भविष्य को सावधान करता है. बीती बातों को याद कर या जानकर ही व्यक्ति या समाज अपने लक्ष्य को हासिल कर सकता है और अपनी खोई खोई हुई शौर्यता - उत्कर्षता को प्राप्त कर सकते हैं। सनातनियों को यह विदित हो कि जब तक वैदिक संस्कृति आधारित सत्ता थी तब तक देश सोने की चिड़ियां था लेकिन जब से हमने अहिंसा परमो धर्मः माना तब से सनातनियों के अंदर कायरता आ गई। इसका मतलब यह कदापि नहीं कि मैं हिंसा को समर्थन देता हूं, अपितु मैं इस बात में विश्वास करता हूं कि आत्मरक्षार्थ या राष्ट्र रक्षार्थ यदि हिंसा करने की जरूरत हो, तो अहिंसा का रास्ता त्याग कर शास्त्र के साथ शस्त्र उठाने में गुरेज या परहेज नहीं करनी चाहिए। क्योंकि ऐसी हिंसा, हिंसा नहीं कहलाती है।

(अजीत सिन्हा)
      राजतंत्र में सत्ता प्राप्ति हेतु या सीमा के विस्तारीकरण हेतु हमेशा हिंसा का सहारा लिया जाता था.  जिससे भीषण रक्तपात होता था क्योंकि सत्ता कालांतर में बाहुबलियों की रखैल बन कर रह गई थी और राजा अपने मन मुताबिक अपने बल एवं बुद्धि की बदौलत शासन करते थे. प्रजा उनकी गुलाम हुआ करती थी या अच्छे राजाओं की सहभागी लेकिन भीषण रक्तपात की वज़ह से ही बौद्ध धर्म का प्रादुर्भाव हुआ और अहिंसा परमो धर्मः सर्वोच्च स्थान ग्रहण करने लगा.  लेकिन इससे नुकसान यह हुआ कि लोग अपनी शौर्यता भूल गये और उनका रक्त ठण्डा पड गया. जिसका लाभ आततायी सीमा विस्तारक मुगलों और अंग्रेजों ने उठाया। भारत की धन - सम्पदा, मान - सम्मान को जम कर लूटा. हालांकि कई राजाओं ने प्रतिकार करते हुये अपनी जान को न्यौछावर किया लेकिन उस समय के  भारत के जनमानस को अहिंसा की घुट्टी पिलाने की वज़ह से अधिकतर भारतीय कायर हो गये. लेकिन जिन्होंने प्रतिकार किया और अपने अस्त्र - शस्त्र का प्रयोग किया वे या तो अपनी रक्षा में सफल हो गये. अपनी प्रजा की आन - बान - शान बचाई या अपनी मातृभूमि हेतु बलिदान को गले लगाया।

     आगे अजीत सिन्हा ने कहा कि आज थोड़ी परिस्तिथि भिन्न है और लोकतंत्र की सत्ता है. जिसमें सत्ता की बागडोर जनता द्वारा चुने हुये प्रतिनिधियों के हाथ में होती है लेकिन समस्या ज्यों की त्यों है. क्योंकि पहले भी आततायी सक्रिय थे और आज भी हैं लेकिन लड़ाई का स्वरुप बदल गया है. अब वे जनसंख्या बल द्वारा एवं  आपसी फूट कराकर सत्ता की बागडोर सम्भालना चाहते हैं. बहुसंख्यक समाज इस बात को नहीं समझ रहा है और सत्तासीन दल वोट की खातिर उनके मंसूबों को सफल कर रहे हैं. विपक्ष भी उनका तुष्टीकरण कर सत्ता के गलियारों में प्रवेश करना चाहता है. ये सत्ता की भूख पूरी करने के लिए अपने सिद्धांतों से समझौता करने से भी नहीं चूक रहे हैं. सहिष्णुता, सहनशीलता का आवरण ओढ़ रखा है. एक वर्ग विशेष के वोट की खातिर अपने - अपने सिद्धांतो से समझौता कर रहे हैं. उनकी जनसंख्या इस कदर बढ़ती जा रही है कि वे भारत सहित वैश्विक इस्लामीकरण की नीति को आगे बढ़ा रहे हैं. हालंकि पूरा विश्व उनकी इस मंशा को पहचान चुका है. हर जगह उन्हें वर्तमान समय में मुहंकी खानी पड रही है चाहे फ्रांस हो या इजराइल। देखने को यह मिल रहा है उनके 57 देश एकत्रित होने का प्रयास कर रहे हैं अर्थात्‌ विश्व तृतीय विश्वयुद्ध की ओर बढ़ रहा है। 

     जब विश्व युद्ध होंगे तो देश के अंदर के ग़द्दार, जेहादी एवं देशद्रोही और भी ज्यादा सक्रिय हो जाएंगे। इसलिये देश में धर्म युद्ध की आड़ में एक गृहयुद्ध की संभावना भी बनती दिख रही है. इन परिस्थितियों से निपटने के लिए बहुसंख्यक समाज में एकता की ज़रूरत है. साथ में शौर्यता दिखाने और अपनी अस्मिता, मान - सम्मान बचाने के लिए बाहुबल के साथ शस्त्र प्रशिक्षण की भी आवश्यकता होगी। जरूरत पड़ने पर आत्मरक्षा या राष्ट्र रक्षा में अस्त्र - शस्त्र भी उठाने होंगे। इसके लिये सभी को मानसिक रूप से तैयार रहने की आवश्यकता है. साथ में अपनी तैयारियों पर भी जोर देना होगा। अहिंसा परमो धर्मः के साथ धर्म हिंसा तथैव च को भी अंगीकार करना होगा। जय हिंद!