जिंदा रहने में और एक दिन, ना रहने में

From WhatsApp - Abhay Saxena 

ज़रा सा फर्क होता है,

जिंदा रहने में और एक दिन, ना रहने में

ये इतने सारे लोग जो गए हैं।

क्या इनको देखकर कभी ऐसा लगा था ?  कि ये, यूं ही चले जायेंगे।

बिना कुछ कहे, बिना कुछ बताए ।

उन सब से कुछ लगाव था हमें। 

कुछ शिकायतें थी।

कुछ नाराजगी भी हो सकती थीं। 

जो कभी, कही नहीं हमने ।

पर कहा तो हमने वो भी नहीं , 

जो उनमें, बेहद पसंद था हमें ।

फिर अचानक एक दिन खबर आती है। 

ये नहीं रहे, वो नहीं रहे।

नहीं रहे मतलब, कैसे नहीं रहे ?

कैसे एक पल में सब कुछ बदल जाता है?

वही सारे लोग, जिनसे हम अक्सर मिला करते थे कल तक।

वे इतनी जल्दी कैसे गायब हो सकते है, कि दोबारा मिलेंगे ही नहीं।

जैसे कोई बेजान खिलौना,

जिसकी चाबी खत्म हो गयी हो।

कितना कुछ कहना रह गया था उनको।

कहीं घूमने जाना था उनके साथ, खाना भी खाना था, पार्टियां भी करनी थी।

कुछ बताना था, कुछ कहना भी था उनको। बहुत सी बातें करनी थी फ़िज़ूल की ही सही।

पर वो भी कहाँ हो पाया?

सब कुछ रह गया, वो चले गए।

न हम ही तैयार थे।

न वो ही तैयार थे, रुख़्सती के लिए

ऐसे ही एक दिन हमारी भी खबर आनी है। 

एक सुबह कि फलाने नहीं रहे।

लोग अरे! कह कर एक मिनिट खामोश होंगे!

फिर जीवन बढ़ जाएगा आगे।

इसलिए आओ, तैयारी कर लेते हैं...

सब नाराज़गी, शिकायतों और तारीफों का हिसाब चुकता करते हैं।

ज़िंदगी हल्की हो जाएगी। तो आखरी सांस पर, मलाल  नहीं रहेगा।

क्योंकि

ज़रा सा फर्क होता है...

जिंदा रहने में और एक दिन , ना रहने में .