कहानी - मन के तार

Story from - NARENDRA SINGH "Babal"

कहानी - मन के तार

     ज़िन्दगी भी एक ट्रेन की तरह है..... ज़रा -सी लेट-लतीफी से जिस प्रकार ट्रेन स्टेशन से छूट जाती है ठीक उसी प्रकार जीवन से बहुत कुछ छूट जाता है लेकिन कहीं भाग्य से ट्रेन किन्ही तकनीकी कारणों से आगे रुकी दिखाई दे जाए तो दौड़ कर, लपककर ट्रेन में बैठ जाना चाहिए, सोच विचार नहीं करना चाहिये। ट्रेन में बैठकर भी सोचा जा सकता है. 

NARENDRA SINGH "Babal")
     ऐसे ही जीवन के पथ पर ईश्वर के आशीर्वाद से छूटा हुआ मन फिर से जुड़ रहा हो तो सोच-विचार करने की बजाय मन के तारों को जोड़ लेना चाहिये, क्योंकि की जैसे बिना तारों के वीणा से संगीत नहीं उठता। उसी प्रकार जीवन के टूटे तारों के जुड़े बिना, जीवन सार्थक नहीं होता। मनुष्य दूसरे लोंगो की सोच कर कि लोग क्या कहेंगे? वह निर्णय नहीं ले पाता। जबकि लोग आपके सुख में भी निंदा कर रहे होंगे, तो दुःख में भी निंदा कर रहे होंगे। दुःख में तो निन्दा के साथ-साथ लोग प्रताड़ित भी करते हैं. 

     गैरों के है हाथों हम प्रताड़ित और दुःखी हो सकते हैं तो क्या कभी हम अपनों को माफ नहीं कर सकते। यह सोच कर की क्या हुआ, जो मैं प्रताड़ित हुआ? क्या हुआ जो मुझे दुःखी किया? था तो मेरा, मेरा अपना। सिर्फ मेरा, कोई ग़ैर नहीं, जो नफ़रत करूं परन्तु होता इसके विपरीत है. पूरा जीवन  पाठशाला है. जीवन ही शिक्षक है, तो जीवन ही विद्यार्थी। जीवन वर्तमान में है. गुज़रा हुआ कल और आने वाले कल में जीवन मृत्यु समान है. गुजरे कल से सबक लिया जाता है. आने वाले कल से दृष्टिकोण बनाया जाता है लेकिन जिया जाता है केवल वर्तमान में. उत्साह मनाया जाता है सिर्फ़ और सिर्फ वर्तमान में. वर्तमान ही बताता है कि भूतकाल में हमारा संघर्ष कैसा था और वर्तमान ही तय करता है कि हमारा मुस्तकबिल (भविष्य)  कैसा होगा? जतन तो बनाने में है रे, बिगाड़ने में तो पल भर लगता है. 

     सुंदरता तो ढ़कने में है. जीवन जो बीत जाए लाख दिन मगर दुःखी गुज़रा हो तो उसे याद नहीं करना चाहिए और यदि सुख और प्रसन्नता से गुजरे हों चार दिन भी, तो उन्हें सदा याद रखना चाहिये। अरे कमी किसमें  नहीं है रे. कमी तो भगवान ने स्वयं में भी रखी! हम तो इंसान हैं। यदि हम कमियां ही ढूंढे तो इस संसार में कोई भी जीव-जंतु सम्पूर्ण नज़र नहीं आएगा और यदि ख़ूबी ढूंढें तो अधूरा चाँद भी वंदनीय हो जाता है. चतुर्थी का चाँद पूज कर स्त्रियां करवा चौथ मनाती हैं. पुरुष अपनी अर्धांग्नी को आशीष देते हैं परन्तु यह नहीं सीखते उस अधूरे चाँद से की इस जगत में सम्पूर्ण कोई नहीं, ईश्वर भी नहीं। भूल ईश्वर से भी हो जाती है लेकिन जैसे यह अधूरा चाँद भी वन्दनीय है, पूजनीय है. वैसे ही हम एक दूसरे के अधूरेपन में खूबियां ढूंढ़ेंगे, सकारात्मक सोच रखेंगे, उस अधूरेपन को दोनों मिलकर सम्पूर्ण करेंगे और शायद इसी अधूरेपन की सम्पूर्णता है औलाद। ईश्वर औलाद रूपी उपहार से नारी को माँ का दर्ज़ा देकर सम्पूर्ण बना देता है तो पुरुष को पिता बनाकर सम्पूर्ण कर देता है और  ईश्वर का यही उपहार यानि सन्तान उनके मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करती है|