मन का प्रकाश

[आलेख]

■■■ लेखक :- नरेन्द्र सिंह बबल ■■■ 

     ■■■ सिर्फ़, तरक्की, धन, रुतबा, ऐशो-आराम और हुकूमत का खेल सदियों से चलता आ रहा है और अनवरत चलता रहेगा. इसी खेल के जाल ने बड़े-बड़े युद्ध करवाये पर जो हारा वो तो हारा ही. जो विजयी हुआ वह भी हार गया...स्वयं से, अपनी अंतश्चेतना से. विजयी होकर भी अपनी आत्मा से पराजित हो गया. जो इस खेल से दूर हुआ वही शुद्ध हुआ. वही बुद्ध बना. हम शुद्ध नहीं हो सकते तो कम से कम अशुद्धि का कारण तो ना बने. हम बुद्ध नहीं बन सकते तो कम से कम युद्ध का कारण तो नहीं बने. प्रकाश के लिए क्या-क्या जतन नहीं करते हम. दीये जलाते हैं, मर्करी बल्ब जलाते हैं. हम एक पल बिजली के बिना नहीं रह पाते। थोड़ी देर को बिजली गुल हो जाये तो हम विचलित हो जाते हैं, तड़प उठते हैं. विधुत विभाग को दनादन फोन घुमाते हैं. कहते हैं... पूछते है, लाइट कब आएगी? हमें रोशनी चाहिए, हमें उजाला चाहिए, हमें प्रकाश चाहिए। 
     अँधेरा मातम फैला रहा है. यह अँधेरा डरा रहा है, अँधेरा बर्दाश्त नहीं होता, नहीं सहा जाता यह स्याह अँधेरा। इसे दूर करना है. इस अँधेरे को मिटाना है और हम बत्ती जलाते हैं, बल्व जलाते हैं, हेलोजन और मर्करी जलाते हैं, अँधेरा दूर हो जाता है, अँधेरा मिट जाता है. हम मुस्कराते हैं परन्तु फिर भी लगता है अँधेरा मिटा नहीं। अँधेरा तो कायम है, अँधेरा तो ठहाके मारकर हँस रहा है. अँधेरा क्यों नहीं मिटा? अँधेरा क्यो ज़िंदा है? जब हम देखते हैं दीये को जो प्रकाश तो फैला रहा है लेकिन स्वयं अँधेरे में हैं. उससे भी नहीं सीखते कि हमने अपना अँधेरा तो दूर किया ही नहीं। अपने भीतर का अँधेरा तो मिटाया ही नहीं। अपने मन को तो प्रकाशित किया ही नहीं, मन तो पूरा स्याह अँधेरे से घिरा है और उसे दूर करने का कभी सोचा ही नहीं। मन पर काबू पाने की तरक्की में पिछड़ते गए. मन से हारते गए, मन का अँधेरा बढ़ता ही गया. कभी एक नन्हा सा दीया जलाने का प्रयास ही नहीं किया