{कविता}
लेखक:-नरेन्द्र सिंह बबल
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खिड़कियों के पर्दे हटाकर
मैंने सूरज की किरणों से
कहा
चली आओ |
एक तुम ही हो,
जो चली आती हो
नित्य ,
कभी दबे पाँव ,
कभी इठलाते हुए ,
और कभी रसोई से
चिल्लाती पत्नी की तरह ,
तुम्हारा मेरा सम्बन्ध
है पुराना,
मेरे जन्म से पहले
जब में गर्भ में था ,
माँ अक्सर गुनगुनी धूप
सेका करती थी ,
और मैं तुम्हारा सानिध्य
पा कर किलोल किया
करता था ,
तब माँ कहती ,
'शैतान हाथ -पैर चला
रहा है' ,
और फिर मुस्करा कर
अपने पेट पर हाथ
फेरती ,
जो मेरे सिर पर ही
होता ,
कितना अद्भुत था
हम दोनों माँ- बेटे का
आपस में बात करने
का तरीका ,
तुम्हे मालूम है ना ?
पर अब,
अपनी ही धुंध के
पर्दो से,
ढक चुका हूँ !
घर की खिड़कियों
के जैसे |
अब माँ है गाँव ,
और मैं
शहर की धूल
फांक रहा हूँ |
कट गया हूँ मैं
स्वयं से ,
और अपनी ही
जड़ों से ,
यह तो तुम हो
जो नित्य आकर
बोध करा देती हो
रिश्तों का मर्म
समझा देती हो |
और मैं ,
हमेशा की तरह
तर्क देकर
ढक देता हूँ पर्दों
से खिड़कियाँ |
लेकिन तुम भी
माँ की तरह हो।
सारे दुःख
भुलाकर
आ ही जाती
हो
किसी ना
किसी झिर्री से
अपनी ममता
लुटाने ||■