कविता - नरेन्द्र सिंह बबल
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सोचते हो तुम,
लकड़ियों में जलती हुई आग हूँ |
पर सच तो यह है कि
मैं केवल राख़ हूँ |
हाँ ! हूँ कुछ धुंआ
कुछ देर के लिए,
फिर बुझने पर वही राख़ हूँ |
जो झिलमिलाती है
या कभी-कभी
धधक जाती है आग
उसी के नीचे
बिलकुल नीचे
है मेरा आस्तित्व,
यह आग बुझ रही धीरे-धीरे
और बदल रहा राख़ का आकार ,
दूर तक ,,,,,
बहुत ऊँचे तक
उड़ जाने को,
हर चीज़ मैं मिल जाने को,
कण-कण में समा जाने को,
सच तो यह है मैं हूँ केवल एक कण ,
राख़ का एक कण ,
नहीं दिखाई देने वाला
राख़ का एक कण
हे ! प्रिय
मैं आग नहीं |
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