अखण्ड भारत के माथे की बिंदी 'हिन्दी'

 { विश्व हिन्दी दिवस पर विशेष }

■■■ लेखक:- नरेन्द्र सिंह बबल ■■■

     भाषाएँ विवाद का नहीं ज्ञान का विषय हैं तथा अभिव्यक्ति का सूत्र हैं। मनुष्य जिस परिवेश में रहता है और जो भाषा सुनता है; वह उसी परिवेश की सुनी भाषा को सीखता है। किसी भी भाषा को किसी पर थोपा जाना अनुचित है परन्तु अपनी भाषा के इतर दूसरी भाषा को स्वीकार न करना, उससे कई ज़्यादा अनुचित है। अधिकतर भाषाएं इसलिए भी विवादास्पद रही हैं क्योंकि सत्ताएं उन्हें अपने अनुसार जनता पर थोपती रहीं हैं या भाषाकरण के नाम  पर भाषा का राजनीतिकरण कर दिया गया। 

(नरेन्द्र सिंह बबल)
     भाषा को समृद्ध होना चाहिये ना कि संकुचित लेकिन बहुत से भाषाई प्रांतों ने अन्य भाषाओं को शिरे से खारिज़ कर दिया। इससे यह हुआ कि भाषाओं के मध्य शीतयुद्ध और युद्ध होने लगे और कालांतर में होते रहे हैं। अब भी होते हैं और आगे भी होने का अनुमान है। 

     किसी भी भाषा का कोई क्षेत्र या घर नहीं होता। भाषाएँ स्वच्छंद पक्षियों के समान हैं। उनकी कोई सीमा, धर्म-जाति नहीं होती ना ही रंग-रूप होता है। सुदूर शीत प्रांत से साइबेरियन पक्षी आसमानी मार्ग से गर्म प्रदेशों की धरती पर प्रवास करने आ जाते हैं। 

      एक भाषा को भी इतना उदार और समृद्ध होना ही चाहिए कि वह अन्य भाषाओं को भी सम्मान दे। बहुत-सी भाषाएं और लिपियां इसलिये भी लुप्त होती चली गईं क्योंकि वो उदार और समृद्ध नहीं थी और अगर वह थीं तो भी उस काल की राजनीति और सत्ता ने उन्हें समृद्ध और उदार रहने नहीं दिया या फिर उन्हें कठोरता के साथ समाप्त कर दिया गया। आज भी कई भाषाएँ व लिपियां रहस्य बनी हुईं हैं। आवश्यक्ता है उदारवादी एवं समृद्ध भाषा की। 

     एक जंगल में सभी प्रकार के पशु-पक्षी रहते हैं लेकिन जब सिंह गर्जना होती है तो खतरे को भाँप कर सभी पशु-पक्षी अपनी-अपनी भाषा में सतर्क रहने का संकेत देते हैं और सभी पशु -पक्षी इस सामूहिक सम्प्रेषण की भाषा को समझ जाते हैं और शेर से सावधान हो जाते हैं। यहां से भाषा की शक्ति और एकता को भली-भांति समझ सकते हैं। 

     कोई भी भाषा धरने-प्रदर्शन, तोड़-फोड़, आगजनी अथवा अन्य भाषाओं का विरोध करने से फलती-फूलती नहीं है अपितु वह भाषा कुंठित व संकुचित हो जाती है। वह भाषा कुआँ के मेढ़क के समान हो जाती है जो ना तो दूसरे को स्वीकार करना पसंद करती है और ना ही स्वयं दूसरी ओर प्रसार का प्रयास करती है।  

     भाषा का तो सर्वग्राह्य रूप होता है; क़ैदी बनाता है उसे मनुष्य का स्वार्थ। इसलिए भाषा को समृद्ध और उदारवादी करने का सबसे पहला मन्त्र है उसकी स्वच्छंदता। स्वच्छंद भाषा दूसरों से सीखेगी भी और दूसरों को सिखाएगी भी। भाषा पर नियमों के पहरे भी नहीं होने चाहिये। वह भावनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम होने की स्वीकृति देती है। जटिलताओं ने किसी भी भाषा को चहुँमुखी होने से रोका है। प्रत्येक प्रदेश में प्रत्येक भाषा को सीखने व सिखाने की स्वतंत्रता होने चाहिए। उसकी स्वतंत्रता में राजनीतिक व सामाजिक दबाव नहीं होना चाहिए। भाषा को रंग-रूप, धर्म-जाति और प्रदेश की ज़ंजीरों से नहीं जकड़ाना चाहिए। हमें लुप्त और मृत होती भाषाओं में भी प्राण फूँकने चाहिएं और अपनी भाषा के अलावा अन्य भाषाओं को भी सीखना चाहिए। 

     परन्तु 'राष्ट्र' की भावनाओं को सम्प्रेषित करने के लिए एक समृद्ध और उदारवादी भाषा का होना अनिवार्य है ताकि राष्ट्र के सुख-दुःख को प्रत्येक नागरिक समझ सके। राष्ट्र से ही नागरिक सुरक्षित और संरक्षित रहते हैं।  इसलिए राष्ट्र की शक्ति और एकता के लिए राष्ट्र की भावनाओं को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए एक समृद्ध  भाषा को हमें हृदय से अंगीकार करना ही होगा। और निःसन्देह व निःसंकोच रूप से स्वीकार करना ही चाहिए कि हिन्दी राष्ट्रीय भाषा के रूप में प्रथम स्थान रखती है। जो सभी प्रांतीय भाषाओं की अग्रज है। जब तक राजनीतिक, धार्मिक और प्रांतीयता की मानसिकता हम पर हावी रहेगी, तब तक राष्ट्रीय भाषा का सूत्र धारण नहीं होगा। इसलिए राष्ट्र हितार्थ में आगे आ कर देश के प्रत्येक नागरिक को राष्ट्रीय-भाषा के रूप में हिन्दी को ही हृदय से स्वीकार कर लेना चाहिए। क्योंकि अखण्ड भारत के माथे की बिन्दी हिन्दी ही है ■