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न्यूनतम समर्थन मूल्य पर गेंहू – बाजरा खरीद की समीक्षा
जयपुर. इसी 22 मार्च बुधवार को लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने समीक्षा बैठक में सम्पूर्ण राजस्थान में गेंहू के साथ बाजरे की समयबद्ध खरीद के लिए खाद्य एवं सार्वजानिक वितरण मंत्रालय तथा भारतीय खाद्य निगम के अधिकारियों को निर्देश दिए गये थे । लोकसभा अध्यक्ष के कक्ष में इस प्रकार की बैठक के आयोजन से संवैधानिकता पर प्रश्न चिन्ह उभरता है किन्तु यह भी सच है कि कोटा लोकसभा क्षेत्र से वे निर्वाचित होने से देश की सबसे बड़ी पंचायत में भागीदारी करते है । तथापि वे प्रोटोकॉल के अनुसार संसद में प्रधानमंत्री से भी ऊपर है, संसद के संचालन में निष्पक्षता के लिए अध्यक्ष की तटस्थता अपरिहार्य मानी जाती है ।
तदोपरांत भी यह बैठक राजस्थान में गेंहू और बाजरा की खरीद के सन्दर्भ में होने से लोकहित से जुड़े विषय को महत्ता प्रदान करती है । न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित होने के वर्ष 1966 से अभी तक राजस्थान के कुल उत्पादन में से गेंहू की खरीद 21.8 प्रतिशत तक पहुंची है, अन्य वर्षों में तो खरीद 11 से 19 प्रतिशत के मध्य ही अटकी रही । इस सामान अवधि में पंजाब, हरियाणा एवं मध्यप्रदेश में खरीद का प्रतिशत 80.27% तक है ।
इसी चित्र की स्पष्टता के लिए गेंहू खरीद में 2003-04 में पंजाब 61.7, हरियाणा 56.2, राजस्थान 4.4, मध्यप्रदेश 2.6% था, वर्ष 2011-12 में मध्य प्रदेश 80.27 प्रतिशत भागीदारी के साथ खरीद में आगे हो गया उस समय पंजाब में 74.60% एवं हरियाणा में 68.31% खरीद थी । राजस्थान उस समय भी 21.8 प्रतिशत तक की खरीददारी तक ही पहुंच सका था। विपणन वर्ष 2021-22 में राजस्थान की खरीददारी 21.2 प्रतिशत रह गयी जबकि हरियाणा 69.9%, मध्यप्रदेश 72.9% तथा पंजाब 74.5% पहुंचा था, उस समय भी सर्वाधिक उत्पादन वाले उत्तर प्रदेश की खरीद में भागीदारी 15.8% ही रही ।
दूसरी ओर राजस्थान राज्य में भी नहरी क्षेत्र होने के कारण गंगानगर, हनुमानगढ़, कोटा, बारां और बूंदी गेंहू उत्पादन में राज्य में अग्रणी है, किन्तु यहाँ भी खरीद में असंतुलन है, गंगानगर क्षेत्र की अपेक्षा कोटा क्षेत्र में खरीद की स्थिति कमजोर है । इसका प्रभाव उत्पादक व्यक्ति पर आता है जिसमे ‘निवास स्थान’ के आधार पर भेद-भाव स्पष्ट परिलक्षित होता है । विधि में समानता एवं विधि के समक्ष समानता के साथ ही निवास स्थान के आधार पर भेद-भाव से मूलभूत अधिकारों का हनन हो रहा है । ऐसे विषयों पर चर्चा व्यापक लोकहित है । किन्तु यह भी विचारणीय है कि लोकसभा अध्यक्ष को समीक्षा बैठक के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प इस अन्याय को समाप्त कर न्याय दिलाने का उपलब्ध था या नही ?
ऐसे विषयों पर लोकसभा में प्रश्न पूछे जाने पर लोक सभा अध्यक्ष को सही दिशा में कार्यवाही संचालन का अवसर प्राप्त है । वहीँ लोकसभा की स्थायी समितियों के गठन से लेकर विचारार्थ विषयों के चयन/आवंटन में लोकसभा अध्यक्ष का क्षेत्राधिकार है । फिर उनके पास संबंधित विभाग के मंत्री को संकेत करने का अधिकार प्राप्त है । इसीप्रकार का अवसर प्रधानमंत्री एवं प्रधानमंत्री कार्यालय को न्याय दिलाने का संकेत करने का भी है ।
विकल्पहीनता नहीं होते हुए भी लोकसभा अध्यक्ष द्वारा अपने कक्ष में समीक्षा बैठक किया जाना कार्यपालिका के क्षेत्र में प्रवेश करने जैसा है । भारतीय संविधान में कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका के क्षेत्रो का स्पष्ट निर्धारण किया हुआ है । आपसी तालमेल के लिए भी एक विकल्प हो सकता है ।
देश के गेंहू उत्पादन में उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा तथा मध्यप्रदेश के बाद राजस्थान का पांचवा स्थान है। बाजरा उत्पादन में राजस्थान प्रथम स्थान पर है । कृषि लागत एवं मूल्य आयोग के अनुसार वर्ष 2020-21 में 45.09% की भागीदारी अकेले राजस्थान की है । उसके उपरांत उत्तर प्रदेश 19.9, हरियाणा 10.3, गुजरात 7.2, मध्यप्रदेश 6.6, महाराष्ट्र 5.1, कर्णाटक 2.7 तथा तमिलनाडु की भागीदारी 1.6% है । यानि राजस्थान की तुलना में एक भी राज्य आस पास नहीं है ।
भारतीय खाद्य निगम अधिनियम, 1964 का प्रयोजन खाद्यान्नो के लिए उत्पादक किसानो को उचित मूल्य दिलाना था । उस समय खरीद के लिए गेंहू और बाजरा एक ही श्रेणी में थे । न्यूनतम समर्थन मूल्यों की घोषणा के आरम्भ वर्ष में धान, गेंहू, बाजरा जैसे खाद्यान्न ही थे । चना भी बाद के वर्षों में सम्मिलित किया गया था । अन्य उपजों का तो न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित ही नहीं होता था ।
भारत सरकार ने गेंहू एवं धान की खरीद को प्राथमिकता पर रखा किन्तु बाजरा, ज्वार जैसी मोटे अनाजों की खरीद को दुर्लक्ष्य किया गया । इससे देश में फसलों के विविधिकरण का समीकरण गड़बड़ा गया । इन मोटे अनाजों को गेंहू एवं धान ने खेतों से बाहर कर दिया । इतना ही नहीं तो भारत सरकार द्वारा बनायीं नीति ने बाजरा की खरीद में बाधाएं खडी कर दी । भेदभाव के आधार पर खाद्यान्नो में बाजरा खरीद के मापदंड गेंहू और धान की तुलना में अव्यवहारिक एवं कठोर बना कर भारतीय खाद्य निगम अधिनियम, 1964 के प्रयोजन को विफलता की ओर धकेल दिया । यह भी रोचक तथ्य है कि अधिनियम के प्रावधानों को नीति बना कर निष्प्रभावी कर दिया गया जो विधि सम्मत नहीं है ।
भारत सरकार की अनुशंसा पर वर्ष 2022-23 के लिए अंतर्राष्ट्रीय बाजरा वर्ष (मोटा अनाज वर्ष) घोषित किया गया । किन्तु तब भी भारत सरकार ने अधिनियम को समाप्त करने वाली नीति में कोई परिवर्तन नहीं किया । जब तक इन नीतियों में परिवर्तन हो कर बाजरा की खरीद नीति धान एवं गेंहू जैसी नहीं हो जाती तब तक बाजरा के न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा हाथी के दांत दिखने जैसे बने रहेंगे । इन्ही नीतियों का परिणाम है कि बाजरा का अखिल भारतीय उत्पादन खर्च 1579 रुपये प्रति क्विंटल होते हुए भी किसानो को बाजार में एक क्विंटल के दाम 1200 से 1400 रुपये ही प्राप्त होते है । जो घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य 2250 रुपये प्रति क्विंटल से 1050 रुपये प्रति क्विंटल तक कम है ।
संविधानिक मामलों के जानकार उच्चतम न्यायालय के अधिवक्ता अजय चौधरी के मतानुसार लोकसभा अध्यक्ष द्वारा खरीद की समीक्षा के लिए बैठक किया जाना संविधान सम्मत नहीं कही जा सकती । लोकसभा अध्यक्ष की समीक्षा बैठक ऐसी भेद-भाव पूर्ण नीतियों में परिवर्तन के बिना सार्थक नहीं हो सकती है ।