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“पहन के कुर्ता ढीला ढीला,
चिल्लाता था शीला शीला,
खुद को अच्छा जतलाता था,
चोर सभी को बतलाता था,
कागज़ का एक बड़ा पुलिंदा
गली गली जो दिखलाता था
खाली निकला वही पतीला।
पहन के कुर्ता ढीला ढीला,
चिल्लाता था शीला शीला,
ना लूंगा मैं कारें कोठी,
बातें की थी मोटी मोटी,
खाके कसमें बच्चों की फिर
कांग्रेस की थाम लंगोटी,
बन बैठा ये छैल छबीला
पहन के कुर्ता ढीला ढीला,
चिल्लाता था शीला शीला,
नंगों को भी आड़ मिल गया
चोरों को भी गार्ड मिल गया
इससे क्या अच्छे दिन होंगे,
सबको राशन कार्ड मिल गया
बानो हो या हो शर्मिला
पहन के कुर्ता ढीला ढीला,
चिल्लाता था शीला शीला,
लोकपाल भी अब छूमंतर,
अन्ना गायब, बाहर कविवर,
गिरगिट का अवतार हुआ है
डाल के चप्पल, पहन के मफलर,
शहर में पनपा नया कबीला,
पहन के कुर्ता ढीला ढीला,
चिल्लाता था शीला शीला,
आओ सस्ती दारू पीलें,
किलनिक के पैसों को लीलें
शीला जिसको भ्रष्ट कहा था,
उसने बस ठोकी थी कीलें
ठोक दिया है इसने कीला
पहन के कुर्ता ढीला ढीला,
चिल्लाता था शीला शीला,
पब्लिक में रिक्शे में जाता,
तन्हाई में प्लेन उड़ाता
इकोनॉमी या बिज़नेस छोड़ो
चार्टेड की है ये गाथा,
गज़ब की है ये चंदा लीला,
पहन के कुर्ता ढीला ढीला,
चिल्लाता था शीला शीला...