विश्व रंगमंच दिवस

विश्व रंगमंच दिवस पर एक संदेश - नरेन्द्र सिंह बबल 

     ■ आवाज़ के बिना कुछ नहीं.....मूक और मौन जीवन जीना बहुत ही दूभर है। भीतर एक छटपटाहट होती है, बोल पड़ने को..... कि मैं बोलूं और लोग सुनें, मेरा सुख, मेरा दुःख परन्तु बिना आवाज़ के यह सम्भव नहीं। 

     ..... आंगिक और सांकेतिक भाषा का प्रयोग कब तक करूं ? इनसे मन का रेचन नहीं हो पाता। यह आवाज़ ही तो है जो मन के भावों को स्पष्ट कर सकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। रंगमंच के कलाकार अपनी आवाज़ में विशिष्टता लाने के लिए निरंतर अभ्यास करते हैं।

(नरेन्द्र सिंह बबल)
      जिसके लिए सरगम को साधते हैं। जिसके के लिए कूप अभ्यास करते हैं। .... जिसके  लिए सिंहासन करते हैं ताकि उनकी आवाज़ नाद ध्वनि के साथ प्रकट हो। .. क्योंकि यही आवाज़ उसे विशिष्ट रंगकर्मी बनाएगी लेकिन एक आवाज़ जो कुचली जाती है, दबायी जाती है। 

     कभी शासन द्वारा, तो कभी दबंगों द्वारा तो कभी पाखंडियों द्वारा। ....तब उस आवाज़ को मुखर करने के लिए, उस आवाज़ को बुलंद करने के लिए, क्या किया जाए ? क्या किया जाए कि वो आवाज़ दबायी ना जा सके ? ऐसा क्या अभ्यास करें कि वो आवाज़ बुलन्द हो जाये ? 

     उसके लिए भय को त्यागना होगा। उसके लिए स्वार्थ को त्यागना होगा। उसके लिए मानवता का पाठ सीखना होगा। उसके लिए राष्ट्र भक्त बनना होगा। उसके लिए एकता के सूत्र में बंधना होगा। तब यह आवाज़ कोई कुचल नहीं सकेगा, तब इस आवाज़ को कोई दबा नहीं सकेगा। 

     यह आवाज़ जनचेतना है। यह आवाज़ जनआंदोलन है। इस आवाज़ को पहचानना बहुत मुश्किल होता है।  आवाज़ वाला भी मूक हो जाता है, इस आवाज़ के अभाव में। यही आवाज़ महात्मा गांधी बनाती है। 

     यही आवाज़ सुभाषचंद्र बोस बनाती है यही आवाज़ शहीद भगतसिंह बनाती, यही आवाज़ आज़ादी दिलाती है, यही आवाज़ उन्मुक्त और स्वतंत्र रखती है। इस आवाज़ को बनाये रखें। इस आवाज़ का हमेशा साथ दें। 

जय हिंद, जय अखण्ड भारत

नोट - रंगकर्मी  बहुत विपरीत परिस्थितियों मे कार्य करते हैं। कृप्या टिकिट खरीद कर नाटक देखने की आदत डालें। जिससे रंगकर्मियों को प्रोत्साहन व आर्थिक सहयोग मिल सके।